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अ꣣स्य꣢ प्रे꣣षा꣢ हे꣣म꣡ना꣢ पू꣣य꣡मा꣢नो दे꣣वो꣢ दे꣣वे꣢भिः꣢ स꣡म꣢पृक्त꣣ र꣡स꣢म् । सु꣣तः꣢ प꣣वि꣢त्रं꣣ प꣡र्ये꣢ति꣣ रे꣡भ꣢न्मि꣣ते꣢व꣣ स꣡द्म꣢ पशु꣣म꣢न्ति꣣ हो꣡ता꣢ ॥१३९९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अस्य प्रेषा हेमना पूयमानो देवो देवेभिः समपृक्त रसम् । सुतः पवित्रं पर्येति रेभन्मितेव सद्म पशुमन्ति होता ॥१३९९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣स्य꣢ । प्रे꣣षा꣢ । हे꣣म꣡ना꣢ । पू꣣य꣢मा꣢नः । दे꣣वः꣢ । दे꣣वे꣡भिः꣢ । सम् । अ꣣पृक्त । र꣡स꣢꣯म् । सु꣣तः꣢ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । ए꣣ति । रे꣡भ꣢꣯न् । मि꣣ता꣢ । इ꣣व । स꣡द्म꣢꣯ । प꣣शुम꣡न्ति꣢ । हो꣡ता꣢꣯ ॥१३९९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1399 | (कौथोम) 6 » 2 » 8 » 1 | (रानायाणीय) 12 » 3 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५२६ क्रमाङ्क पर जीवात्मा-परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ सूर्य के वर्णन द्वारा परमात्मा की महिमा प्रकाशित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अस्य) इस पवमान सोम अर्थात् पवित्रतादायक अन्तर्यामी जगदीश्वर की (प्रेषा) प्रेरणा से और (हेमना) ज्योति से (पूयमानः) पवित्र किया जाता हुआ (देवः) प्रकाशक वा तापमय सूर्य (देवेभिः) प्रकाशक वा सन्तापक किरणों द्वारा (रसम्) भूमि के जल से (समपृक्त) सम्पर्क करता है। (सुतः) भाप बनाकर ऊपर प्रेरित किया हुआ तथा मेघ के आकार को प्राप्त हुआ वह जल (रेभन्) विद्युद्गर्जना करता हुआ (पवित्रम्) अन्तरिक्ष में (पर्येति) परिभ्रमण करता है, (इव) जैसे (होता) होता नामक ऋत्विज् (मिता) निर्माण किये हुए (पशुमन्ति) धेनुओं से युक्त (सद्म) गो-सदनों में, गोदुग्ध पाने के लिए (पर्येति) चक्कर काटा करता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जो यह सूर्य अपने ताप से भूमि पर स्थित जल को भाप बनाकर अन्तरिक्ष में बादलों को रचता और बरसाता है, वह सब परमेश्वर की ही महिमा है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५२६ क्रमाङ्के जीवात्मपरमात्मविषये व्याख्याता। अत्र सूर्यवर्णनेन परमात्महिमा प्रकाश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अस्य) पवमानस्य सोमस्य पवित्रतासम्पादिनोऽन्तर्यामिनो जगदीश्वरस्य (प्रेषा) प्रेरणया (हेमना) ज्योतिषा च। [हेमना हेम्ना, अल्लोपाभावश्छान्दसः।] (पूयमानः) पवित्रीक्रियमाणः, (देवः) प्रकाशकः तापमयः सूर्यः (देवेभिः) प्रकाशकैः सन्तापकैः रश्मिभिः (रसम्) भूम्या उदकम् (समपृक्त) संपृक्ते। (सुतः) वाष्पीकृत्य (ऊर्ध्वं) प्रेरितः मेघाकारतां गतः स रसः (रेभन्) स्तनयित्नुशब्दं कुर्वन् (पवित्रम्) अन्तरिक्षम् (पर्येति) परिभ्रमति। कथमिव ? (होता) तन्नामा ऋत्विक् (मिता) मितानि निर्मितानि (पशुमन्ति) धेनुयुक्तानि (सद्म इव) सद्मानि गोसदनानि यथा गोदुग्धघृतादिप्राप्त्यर्थम् पर्येति तद्वत् ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

योऽयमादित्यः स्वतापेन भूमिष्ठं सलिलं वाष्पीकृत्यान्तरिक्षे मेघान् रचयति वर्षति च स सर्वोऽपि महिमा परमेश्वरस्यैव ॥१॥